राजा और चार बेटियाँ


 

राजा और चार बेटियाँ

बहुत समय पहले की बात है। एक बड़े राज्य में एक न्यायप्रिय और बुद्धिमान राजा राज करता था। उसका नाम वीरेंद्र सिंह था। उनके पास अपार धन-दौलत, विशाल सेना और समृद्ध प्रजा थी। किंतु उनकी सबसे बड़ी चिंता उनकी चार बेटियाँ थीं।


राजा अपनी बेटियों से बहुत प्रेम करते थे। चारों बेटियाँ रूप और गुण में भिन्न थीं। बड़ी बेटी का नाम सावित्री था। वह बुद्धिमान, अध्ययनशील और दूरदर्शी थी। वह पिता के साथ दरबार में बैठती, राजकाज समझती और हर निर्णय में सलाह देती। दूसरी बेटी का नाम मालती था। वह बहुत दयालु और सहृदय थी। उसे गरीबों की मदद करना और सेवा करना अच्छा लगता था। तीसरी बेटी कुसुम थी। वह कला, संगीत और नृत्य में निपुण थी। उसकी मधुर आवाज़ और लयबद्ध नृत्य से दरबार सज उठता था।

लेकिन चौथी बेटी ललिता का स्वभाव इन सबसे बिल्कुल अलग था। वह न तो पढ़ाई में रुचि रखती थी, न ही सेवा या कला में। उसे केवल विलासिता और ऐशो-आराम पसंद था। वह दिन-रात नयी वस्त्र-आभूषणों की मांग करती और धन को पानी की तरह बहाती। राजकुमारी ललिता को अपने पिता की मेहनत और राज्य की संपत्ति की कोई कद्र नहीं थी।

राजा अक्सर सोचते कि उनके बाद राज्य का संचालन किसके हाथों में दिया जाए। एक दिन उन्होंने चारों बेटियों की परीक्षा लेने का निश्चय किया। उन्होंने सबको सौ-सौ स्वर्ण मुद्राएँ दीं और कहा—
“तुम चारों इस धन का उपयोग करो और कुछ ऐसा कार्य करो जिससे राज्य और प्रजा को लाभ पहुँचे। एक महीने बाद मैं देखूँगा कि किसने इस धन का सबसे अच्छा उपयोग किया है।”

बेटियों की परीक्षा

समय बीतता गया। एक महीने बाद चारों राजकुमारियाँ पिता के सामने आईं।

सबसे पहले सावित्री आई। उसने कहा—
“पिताश्री, मैंने इन सौ स्वर्ण मुद्राओं से राज्य में एक पुस्तकालय बनवाया है। इसमें विद्वानों की रचनाएँ और धर्म-ग्रंथ रखे गए हैं। प्रजा यहाँ आकर ज्ञान प्राप्त करेगी।”

राजा यह सुनकर बहुत प्रसन्न हुए।

फिर मालती आई। उसने कहा—
“पिताजी, मैंने इस धन से गरीबों के लिए एक भोजनशाला शुरू करवाई है। अब राज्य का कोई भी भूखा नहीं सोएगा।”

राजा ने उसकी दयालुता की सराहना की।

इसके बाद कुसुम आई। वह बोली—
“पिताजी, मैंने इन मुद्राओं से संगीत और नृत्य विद्यालय बनवाया है। वहाँ राज्य के बच्चे कला सीखेंगे और हमारे राज्य की पहचान दूर-दूर तक फैलेगी।”

राजा उसकी रचनात्मक सोच देखकर मुस्कुराए।

अंत में ललिता आई। वह हँसते हुए बोली—
“पिताजी, मैंने इस धन से एक शानदार महफ़िल सजाई। उसमें नाच-गाना हुआ, महंगे पकवान बने और खूब आनंद आया। धन तो खर्च हो गया, लेकिन मज़ा भी खूब आया।”

राजा का निर्णय

राजा यह सुनकर गंभीर हो गए। उन्होंने कहा—
“ललिता, तुमने केवल अपना मनोरंजन किया और धन को व्यर्थ गँवा दिया। यदि इसी प्रकार राज्य का धन बहाया गया तो प्रजा भूखी रहेगी और राज्य कमज़ोर हो जाएगा। तुम्हें अभी यह समझ नहीं आई कि राजा का कर्तव्य केवल सुख भोगना नहीं, बल्कि प्रजा की सेवा करना होता है।”

फिर उन्होंने बाकी तीनों बेटियों की ओर देखा और बोले—
“सावित्री ने ज्ञान का दीप जलाया, मालती ने भूखों का पेट भरा और कुसुम ने कला को बढ़ावा दिया। तुम तीनों ने धन का सही उपयोग किया है और राज्य का भविष्य उज्ज्वल बनाया है। किंतु ललिता, तुम्हें अपनी भूल से सीखना होगा।”

शिक्षा

समय के साथ ललिता ने भी अपनी गलती समझी। उसने देखा कि प्रजा सावित्री की पुस्तकालय से पढ़-लिख रही है, मालती की भोजनशाला से भूख मिटा रही है और कुसुम के विद्यालय से कला का विकास हो रहा है। जबकि उसकी महफ़िल का कोई निशान तक नहीं बचा।

एक दिन वह पिता के पास आई और बोली—
“पिताजी, मैंने सीखा है कि असली आनंद दूसरों की भलाई में है, न कि व्यर्थ धन खर्च करने में। अब मैं भी अपनी संपत्ति प्रजा की सेवा में लगाना चाहती हूँ।”

राजा ने उसकी पीठ थपथपाई और कहा—
“यही सही शिक्षा है। जो बुद्धि और धन को सही दिशा में लगाता है वही सच्चा राजकुमार या राजकुमारी कहलाता है।”

निष्कर्ष

इस प्रकार चारों राजकुमारियों ने मिलकर राज्य को समृद्ध बनाया। और लोगों ने हमेशा यह कहानी याद रखी कि—
“धन का मूल्य तभी है जब वह ज्ञान, सेवा और कला के लिए खर्च हो; व्यर्थ खर्च करने पर वह केवल क्षणिक आनंद देता है, स्थायी सुख नहीं।”



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